क्रिया अभ्यास करने वालों के उत्कृष्टतम चेतना के अनुभवों की झलकियां
महावतार बाबाजी, वे महान् गुरु जिन्होंने आधुनिक युग के लिये क्रियायोग को पुनर्जीवित किया, 1920 में, 4 गड़पार रोड, कोलकाता में परमहंस योगानन्दजी से मिले। बाबाजी ने युवा संन्यासी से कहा : ‘‘तुम ही वह हो जिसे मैंने पाश्चात्य जगत् में क्रियायोग के प्रसार के लिये चुना है। बहुत वर्ष पहले मैं तुम्हारे गुरु युक्तेश्वर से एक कुम्भ मेले में मिला था और तभी मैंने उनसे कह दिया था कि मैं तुम्हें उनके पास शिक्षा ग्रहण के लिये भेजूँगा।’’
स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी से प्राप्त उस प्रशिक्षण, जिसने परमहंसजी को क्रियायोग के द्वारा विश्व-चैतन्य की उच्च अवस्थाओं में प्रवेश करने के लिये सक्षम बनाया, के बारे में बताते हुए परमहंसजी ने लिखा : ‘‘श्रीयुक्तेश्वरजी ने मुझे यह दिव्य आनंदपूर्ण अनुभव अपनी इच्छानुसार जब-चाहे-तब प्राप्त करने का और जिनका अंतर्ज्ञान पर्याप्त रूप से विकसित हो गया हो, ऐसे लोगों को भी इसे प्रदान करने का तरीका सिखाया।’’
दिव्य चेतना एवं अनुकंपा का संचार — जो अभ्यास के आरंभ में थोड़ा या बहुत साधक की ग्रहण करने की शक्ति और उन्नति पर निर्भर करता है — क्रिया योग के प्रसार का एक अनिवार्य अंग है। जैसे कि बाबा जी ने निर्देश दिया था क्रिया एक दार्शनिक शिक्षा नहीं है बल्कि एक आध्यात्मिक दीक्षा है जिससे सच्चे, अलौकिक गुरु और शिष्य के बीच में एक पवित्र दिव्य संबंध स्थापित होता है।
अपनी योगी कथामृत के अंत में योगी कथामृत परमहंसजी लिखते हैं : ‘‘केवल कुछ दर्जन ही नहीं, बल्कि लाखों क्रिया-योगियों की आवश्यकता है शान्ति एवं समृद्धि के उस विश्व को साकार करने के लिये, जो परमपिता के पुत्र पद को पुन: प्राप्त करने का उचित प्रयास करने वाले लोगों की प्रतीक्षा करता है।…ईश्वर करे कि सब लोगों को यह ज्ञात हो जाये कि सारे मानवी दु:खों को मिटा देने के लिये आत्मज्ञान की निश्चित वैज्ञानिक प्रविधि अस्तित्व में है।’’ परमहंस योगानन्दजी के वाईएसएस/एसआरएफ़ के हज़ारों शिष्य जिनका जीवन आत्मा के इस पवित्र विज्ञान के संसार भर में प्रसार से उन्नत हुआ है, इनमें से कुछ शिष्यों के संक्षिप्त वृत्तांत नीचे दिए गये हैं।
डा. एम. डब्ल्यू. लुईस
डॉ. मिनॉट डब्ल्यू. लुईस, बॉस्टन के एक दंत चिकित्सक थे, जो 1920 में परमहंसजी के अमेरिका आने के थोड़े समय बाद परमहंसजी के संपर्क में आये और क्रियायोग की पवित्र दीक्षा प्राप्त करने वाले प्रथम शिष्य बने। जिन वर्षों के दौरान वे सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के उपाध्यक्ष एवं लोकप्रिय मिनिस्टर रहे, वे अक्सर परमहंसजी के साथ अपनी पहली मुलाकात के बारे में बताया करते थे। नीचे का विवरण डॉक्टर द्वारा कई वर्षों के दौरान दिये प्रवचनों से संकलित है।
1920 के अंत में, जब परमहंस योगानन्दजी को अमेरिका आये ज़्यादा समय नहीं हुआ था, इस युवा स्वामी को बॉस्टन के एक युनिटैरियन चर्च में व्याख्यान के लिये आमंत्रित किया गया था। श्रीमती ऐलिस हैसी, जो डॉ. लुईस की पुरानी मित्र थीं, इस चर्च की एक सदस्या थीं। श्रीमती हैसी (जिन्हें परमहंसजी ने बाद में सिस्टर योगमाता नाम दिया) डॉ. लुईस की अध्यात्म में रुचि को जानती थीं और उन्होंने अति आग्रहपूर्वक डॉ. लुईस को यह सुझाव दिया, ‘‘आपको स्वामी योगानन्दजी से अवश्य मिलना चाहिए।’’
“उसके बाद गुरु जी ने अपना मस्तक मेरे मस्तक के सामने किया। उन्होंने मुझे अपनी आँखें उठाने और भौंहों के बीच के बिंदु को देखने के लिए कहा, जो मैंने किया। और वहाँ मैंने आध्यात्मिक दृष्टि के महान प्रकाश को देखा।”
क्रिसमस की पूर्वसंध्या पर यूनिटी हाउस में मिलना निश्चित हुआ, जहाँ गुरुजी ने एक कमरा लिया था। जब डॉक्टर इस मुलाकात के लिये घर से निकले तो उन्होंने सोचा कि वे थोड़े समय के लिये जा रहे हैं। उन्होंने अपनी पत्नी मिल्ड्रेड से कहा कि वे क्रिसमस ट्री को सजाने जल्दी ही वापस आ जायेंगे।
यूनिटि हाऊस जाते समय, रास्ते में, डॉक्टर को अपने माता–पिता द्वारा किसी पाखंडी, जो धर्मगुरु होने का दावा करता है, द्वारा फंसाए जाने या गुमराह किए जाने की दी गयी चेतावनियों का स्मरण हो आया; उनकी मनः स्थिति संशयी थी।
परमहंसजी ने बड़े प्रेम और उत्साह के साथ डॉ. लुईस का स्वागत किया। उस युवा दंत चिकित्सक के मन में कई आध्यात्मिक प्रश्न थे, और परमहंसजी ने उनका संतोषजनक उत्तर दिया। कई वर्षों बाद, डॉक्टर ने इस अवसर के बारे में कहा, ‘‘मैं मिसूरी से था, और मुझे बिना ‘देखे’ संतोष नहीं होता। और उससे भी बुरा, मैं न्यू इंग्लैंड से था, और मुझे बिना ‘जाने’ विश्वास नहीं होता!’’
1920 के क्रिसमस की उस पूर्व संध्या पर उन्होंने परमहंसजी से कहा : ‘‘बाइबिल हमें बताती है : ‘शरीर का प्रकाश नेत्र है : इसलिये यदि तुम्हारा नेत्र एकल हो जाये, तो तुम्हारा पूरा शरीर प्रकाश से भर जाएगा।’ क्या आप इसे समझा सकते हैं?’’
‘‘हाँ, सोचता हूँ कि मैं यह कर सकूँगा,’’ गुरुजी ने कहा।
डॉक्टर अभी भी शंकालु थे। ‘‘मैंने कई व्यक्तियों से पूछा है,’’ उन्होंने कहा, ‘‘परन्तु किसी को भी इसका अर्थ नहीं मालूम।’’
‘‘क्या अंधा अंधे को मार्ग दिखा सकता है?’’ परमहंसजी ने उत्तर दिया। ‘‘दोनों अज्ञान की एक ही खाई में जा गिरेंगे।’’
‘‘क्या आप मुझे यह सब दिखा सकते हैं?’’
‘‘हाँ, सोचता तो यही हूँ,’’ गुरुजी ने फिर से कहा।
‘‘तो फिर, भगवान् के लिये, कृपया मुझे दिखाइये!’’
गुरुजी ने डॉक्टर से पालती मार कर फर्श पर बैठने के लिए कहा, और उनके सामने बैठ गए। सीधे डॉक्टर की आंखों में ध्यान केंद्रित करते हुए परमहंसजी ने कहा,-” क्या तुम हमेशा मुझसे वैसे ही प्यार करोगे जैसे मैं तुमसे करता हूं?”
डॉक्टर ने स्वीकृति में सिर हिलाया। उसके बाद गुरु जी ने कहा-“तुम्हारे सभी अपराधों को क्षमा किया जाता है और मैं तुम्हारे जीवन का दायित्व अपने ऊपर लेता हूं।”
“इन शब्दों के साथ” डॉक्टर बाद में याद करके बताते थे,” मुझे अनुभव हुआ कि मेरे कंधों से बहुत बड़ा बोझ उतर गया है । यह पूरी तरह सच है। मैंने बहुत आराम महसूस किया — जैसे कि मैं कर्म और मोह के पहाड़ों के नीचे से निकल कर मुक्त हो गया होऊँ। एक बहुत बड़ा बोझ मेरे ऊपर से उठा लिया गया था और तब से अभी तक उठा हुआ है। बहुत सारी परीक्षाएं आई — बहुत सारी — लेकिन वह वापस कभी मेरे कंधों पर नहीं आया”।
कहानी आगे बताते हुए, डॉ. ल्यूइस ने कहा:
“उसके बाद गुरु जी ने अपना मस्तक मेरे मस्तक के सामने किया। उन्होंने मुझे अपनी आँखें उठाने और भौंहों के बीच के बिंदु को देखने के लिए कहा, जो मैंने किया। और वहाँ मैं आध्यात्मिक दृष्टि के महान प्रकाश को देखा। गुरु जी ने कोई संकेत नहीं दिया कि मैं कुछ देखूं उन्होंने सुझाव देकर मुझे प्रभावित नहीं किया। मैंने जो देखा वह सहज और स्वाभाविक था।
“मैं पूरी तरह सचेत था, पूरी तरह जगा हुआ था, पूरी तरह सतर्क था और मैंने आध्यात्मिक नेत्र देखा क्योंकि गुरुजी ने मेरे मन से उठने वाली तरंगों को शांत, स्तंभित कर दिया था और मेरी आत्मा के अंतर्विवेक को यह देखने के लिए अनुमति दे दी थी। जैसे ही मैंने महान सुनहरे प्रकाश में और गहराई से ध्यान से देखा, एक संपूर्ण आध्यात्मिक नेत्र स्पष्ट दिखने लगा जिसके अंदर एक गहरे नीले रंग का केंद्र था जो क्राइस्ट की चेतना की अभिव्यक्ति का प्रतीक है मेरे अंदर निहित और अंत में एक रुपहला तारा उसके केंद्र में, जो आध्यात्मिक चेतना का परम शिखर बिंदु है।
“निसंदेह ,मैं बहुत अधिक आह्लादित था यह समझ कर के अंत में मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिल गया जिसने मुझे मेरी आंतरिक सच्चाई को दिखा दिया जो नित्य प्रतिदिन सदा हम सबके अंदर रहती थी। मैंने अनुभव किया कि वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे बल्कि आमतौर पर जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्यों से कहीं बहुत उन्नत व्यक्ति थे जो इस प्रकार की आध्यात्मिक सच्चाईयों को जानने की घोषणा कर रहे थे। हमने कुछ मिनट तक बातचीत की और उसके बाद एक बार फिर से उन्होंने अपना मस्तक मेरे मस्तक से जोड़ा; और वह क्षण था जब मैंने देखा; जब मैंने हजारों किरणों से युक्त प्रकाश के कमल को देखा; अपने मस्तिष्क के शिखर पर (सबसे उच्चतम आध्यात्मिक केंद्र) — देखने योग्य चीजों में सबसे अधिक वैभवशाली और सौंदर्य से भरा, इसकी अनेकों अनेकों रुपहली पत्तियों के साथ। हजारों किरणों वाले कमल के फूल के नीचे, जिसके चारों और तीव्र प्रकाश था, मैं देख रहा था मस्तिष्क के मूल में स्थित विशाल धमनियों की दीवारों को और, फिर मैंने देखा, जैसे मैं देखता गया। धमनियों के अंदर प्रकाश के छोटे-छोटे स्फुलिंग तैर रहे थे और दीवारों से टकरा रहे थे, मेरी आंखों के सामने यह रक्त कणिकाएं थी। जिसमें प्रत्येक के अंदर सूक्ष्म प्रकाश की अभिव्यक्ति हो रही थी जो परमात्मा के दिव्य प्रकाश की लीला में अपनी भूमिका निभा रही थीं।
“परमहंसजी ने मुझे परमात्मा के महान प्रकाश का दर्शन करवाया और मुझसे कहा : ‘यदि आप इसी मार्ग पर समर्पित रहे और नित्य आत्म ध्यान का अभ्यास करते रहे तो यह दृश्य हमेशा के लिए आपका अपना हो जाएगा।’ इसलिए उसके बाद मैंने उनके सुझाव पर अमल किया मैंने कभी भी क्रिया योग के अभ्यास को नहीं तोड़ा। धीरे-धीरे परमात्मा का प्रकाश प्रकट होने लगा। मैंने जो कुछ भी ग्रहण किया वह गुरु जी से ग्रहण किया। उन्होंने मुझे मोह जाल की दुविधा से निकालकर ऊपर उठाया और प्रकाश के यथार्थ संसार में प्रवेश दिलवाया। जब उस प्रकार का अनुभव होता है तो वह हृदय को रूपांतरित कर देता है। उसके बाद हम मनुष्यों के बीच बंधुत्व और परमात्मा के साथ पिता का संबंध अनुभव करते हैं।”
तारा माता
तारा माता क्रियायोग की एक बहुत उन्नत योगिनी थीं जिन्होंने वर्ष 1924 से परमहंस योगानंदजी की आत्मकथा एवं अन्य रचनाओं के संपादन की सेवा अपने जीवन के अंतिम वर्ष 1971 तक की। वर्ष 1924 में योगानंदजी से मिलने के कुछ दिन बाद उन्होंने ‘एक व्यक्ति’ जिसके पास ब्रह्मांडीय चेतना के अनुभव की दिव्य अनुकंपा थी के विषय में यह लेख लिखा था। उन्होंने विनम्रता पूर्वक उस व्यक्ति की पहचान को छिपा कर रखा और उनका यह कहना था कि यह अनुभव उनके अपने व्यक्तिगत थे। उनके अनुभवों पर एक पुस्तक शीर्षक प्रकाशित हुआ है, -‘फ़ोर रनर औफ़ ए न्यू रेस’ के अंतर्गत जो सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फे़लोशिप से उपलब्ध है।)
अधिकतर लोग यह विश्वास रखते हैं कि दिव्य ज्ञान केवल कुछ ही लोगों के पास होता है और साधारण व्यक्ति, उतना ही जितना उसका विश्वास होता है ईश्वर के निकट पहुंच सकता है। यह अनुभूति कि परमेश्वर से संपर्क स्थापित करने की एक निश्चित विधि उपलब्ध है जिसे सभी मनुष्य हर प्रकार की स्थितियों में उपयोग कर सकते हैं [Kriya Yoga] यह सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फे़लोशिप के विद्यार्थियों के लिए एक प्रकार से बहुत मुक्तिदायक अचंभे की तरह रहा है जिसकी वजह से उन्हें लगता है कि जैसे उनका नया जन्म हुआ है।
मेरे मन में एक घटना का विचार आ रहा है — एक व्यक्ति जैसे ही उसने सेल्फ़ रिलाइज़ेशन के संदेश को सुना वह तुरंत ब्रह्मांडीय चेतना में प्रवेश कर गया ….उस व्यक्ति के अंदर धर्म व आस्था के विषय में बहुत गहरी आकांक्षा थी। वह दुनिया भर के तमाम पवित्र धर्म ग्रंथ अच्छी तरह पढ़ चुका था विशेष कर हिंदुओं के। वह जानता था कि बौद्धिक ज्ञान बहुत सूखा और पथरीला है और उसके अंदर की जो आत्मा की भूख थी उसको वह संतुष्ट नहीं कर सकता था। वह केवल आध्यात्मिक आहार के विषय में पढ़ना ही नहीं चाहता था बल्कि उसका स्वाद भी लेना चाहता था। उसकी साधारण से जीवन में कहीं निराशा की एक अंधेरी खाई भर गई थी निराशा कि कभी वह ईश्वर के साथ सीधा संपर्क स्थापित करने के लिए योग्य नहीं था क्योंकि उसे कभी इस तरह का अनुभव नहीं हुआ था। अंत में उसके अंदर दुविधा भर गई, ईश्वर के स्थान पर, किंतु एक संभावना बची थी कि बौद्धिक ज्ञान के आगे भी कभी कुछ अधिक संभव होगा। यह विश्वास ही उसके जीवन की जड़ पर प्रहार कर रहा था और जिसकी वजह से वह जीवन को निरर्थक और अयोग्य समझने लगा था।
अन्य वाई. एस. एस./एस. आर. एफ़. क्रियावानों के अनुभव
ईश्वर की कृपा से मुझे क्रियायोग की दीक्षा 20 वर्ष पूर्व मिली थी। मैं ध्यान के लिये प्रात: 4 बजे उठ जाती हूँ, और अपने परिवार के लोगों को 6 बजे जगाती हूँ। यह 4 से 6 का समय मेरे लिये पूरे दिन का सबसे अधिक शांति वाला समय है। इस समय मुझे ध्यान में विशेष आनन्द आता है। एक बात जो मैंने अनुभव की है, उसे मैं बताना चाहूँगी। वह यह कि ईश्वर और हमारे बीच की दूरी तथा हमारी उनके प्रति भक्ति परस्पर संबंधित हैं। भक्ति जितनी अधिक होगी, दूरी उतनी ही कम होगी। मुझमें ईश्वर के निकट रहने की इच्छा जितनी तीव्र हुई, उतने ही स्पष्ट रूप से उन्होंने मुझे दर्शन दिये।
एक वर्ष पहले मुझे एक दिव्य अनुभव हुआ। मेरी साँस रुक गयी और मेरा मेरुदण्ड नीचे से ऊपर तक तनकर सीधा हो गया। मेरा शरीर निश्चेष्ट हो गया था और मेरा मस्तिष्क प्रखर प्रकाश एवं अनंत आनंद का अनुभव कर रहा था।
मैं केवल इतना ही कह सकती हूँ कि एसआरएफ़ वेबसाइट में दिये श्री योगानन्दजी के ये शब्द बिल्कुल सत्य हैं: ‘‘एक अनिर्वचनीय शान्ति, ईश्वर की उपस्थिति का पहला प्रमाण है। यही फिर ऐसे आनंद में बदल जाती है जो मानवीय कल्पना से परे है।’’ मेरे गुरु श्री योगानन्दजी और मुझे मार्गदर्शन देने वाली सभी दिव्य आत्माओं को नमन तथा ईश्वर को धन्यवाद!
— एन. के., नामीबिया
यह उस समय की बात है जब दोनों समय ध्यान करते मुझे 6 महीने हो गये थे। एक शाम मैं थका हुआ था और ध्यान न करके सीधे सोना चाहता था। जब मैंने अपनी पत्नी को यह बताया तो उसने मेरा कॉलर पकड़ लिया और अपने चहरे को मेरे चेहरे के पास लाकर कहा कि तुम ध्यान किये बिना नहीं सोओगे। आश्चर्य में मैंने उससे कहा कि मुझे लगता था कि वह एस. आर. एफ़. को एक अपरिचित धार्मिक सम्प्रदाय मानती थी और इसलिये इसके साथ जुड़ने से खुश नहीं थी। इस पर मेरी पत्नी ने कहा, ‘‘पिछले छ: महीनों में तुम ऐसे पति हो गये हो जिसकी मैंने सदा इच्छा की थी। मैं तुम्हें वापस पहले जैसा बनने नहीं दूँगी। जाओ और ध्यान करो!’’
ज़रा सोचिये। यह 33 साल पुरानी घटना है। तब से मेरा ध्यान (और मेरा वैवाहिक जीवन भी) मधुर-अति-मधुर होते गये हैं। इतने समय इस मार्ग पर चलने के बाद मेरे जीवन और मेरे विचारों में गुरुजी की शिक्षायें साकार हो गयी हैं। ‘‘हज़ार साल या कल तक’’-ये शब्द मेरे लिये एक आनन्दप्रद आश्वासन हैं, यह जानकर कि अपनी आत्मा को जानने तथा अपने शाश्वत रूप को पहचानने में गुरुजी प्रतिदिन मेरी सहायता कर रहे हैं।
— डी. सी. एच., अमेरिका
“यह अनुभूति कि परमेश्वर से संपर्क स्थापित करने की एक निश्चित विधि उपलब्ध है जिसे सभी मनुष्य हर प्रकार की स्थितियों में उपयोग कर सकते हैं [क्रिया योग ] यह सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फे़लोशिप के विद्यार्थियों के लिए एक प्रकार से बहुत मुक्ति दायक अचंभे/आघात की तरह रहा है जिसकी वजह से उन्हें लगता है कि जैसे उनका नया जन्म हुआ है। “
उसकी आत्मा की अंधेरी रात में सेल्फ़ रिलाइज़ेशन का प्रकाश अवतरित हुआ। परमहंस योगानन्दजी के कुछ जनता के सामने दिए गए भाषण सुनने के बाद और कक्षा में पाठ्यक्रम शुरू करने के बाद उस व्यक्ति को ऐसा एहसास हुआ कि उसके हृदय से निराशा का बहुत भारी बोझ उतरने लगा था। एक रात को जब वह भाषण सुनकर वापस जा रहा था उसे अपने अंदर बहुत महान शांति का अनुभव हुआ। उसे ऐसी अनुभूति हुई कि कहीं बहुत गहराई में उसके व्यक्तित्व के मूल में वह एक रूपांतरित व्यक्ति हो चुका था। एक लहर सी उसके अंदर जागी और उसने अपने कमरे में लगे दर्पण में अपना चेहरा देखा कि यह रूपांतरित हो कर कैसा दिखाई देता है। वहां उसने देखा कि उसके चेहरे के स्थान पर परमहंस योगानन्द का चेहरा झलक रहा था जिन का भाषण उस शाम उसने सुना था।
आनंद की एक प्रचंड बाढ़ उसकी आत्मा में आई। वह अवर्णनीय, निशब्द आनंद की लहरों में डुबकी लगा रहा था। शब्द जो उसके लिए पहले केवल शब्द थे एक पलक झपकने के क्षण में ही आनंद, शाश्वतता, अमरता, सत्य और दिव्य प्रेम में रूपांतरित हो गए थे। उसके अस्तित्व के केंद्र में जीवन के सार के रूप में यही उसका एक संभावित यथार्थ शेष रह गया था। यह अनुभूति कि ये गहरी, सदा रहने वाले आनंद की उपस्थिति हर हृदय में संभव है, कि नश्वर मानवता के नश्वर जीवन में एक अमरता छुपी हुई थी, और यह शाश्वत, सबको अपने में समेट लेने वाला प्रेम, सृष्टि के कण-कण में व्याप्त रहकर, उनको पोषित कर रहा था सृष्टि का एक-एक परमाणु जैसे उस पर दिव्य संरक्षण की वर्षा कर रहा था और उसका पूरा अस्तित्व प्रशंसा और कृतज्ञता की बाढ़ में प्रवाहित हो रहा था।
वह जानता था ना केवल मन के स्तर पर बल्कि हृदय और आत्मा के स्तर पर, अपने शरीर की एक एक कोशिका और आणविक स्तर तक। इस भव्य खोज का दिव्य ऐश्वर्य इतना विशाल, इतना निसीम था कि उसे लग रहा था शताब्दियां, हजारों साल, अगणित युग युगांतर, जो कष्टों में बीते थे वह कुछ भी नहीं थे उनका कोई अस्तित्व ही नहीं था और वे एक माध्यम थे इस महान आनंद को प्राप्त करने का। पाप, दुख और मृत्यु अब उसके लिए केवल शब्द मात्र थे जिनका कोई अर्थ नहीं था। जैसे कि इन शब्दों को सात समंदरों ने अपने अंदर कहीं समेट कर डुबो दिया था।
शारीरिक परिवर्तन
दिव्य अनुभव की इस प्राथमिक अवधि के दौरान और बाद के सप्ताहों में भी, वह अपने भीतर हो रहे अनेक शारीरिक परिवर्तनों को देख रहा था। इनमें सबसे विशेष था उसके मस्तिष्क में आण्विक संरचना की पुनर्व्यवस्था, या वहाँ नये कोशिकीय क्षेत्र का खुलना। अनवरत रूप से, दिन और रात, वह इन परिवर्तनों के प्रति जागरूक था। ऐसा लग रहा था मानो एक बिजली की ड्रिल मशीन नये कोशिकीय विचार-मार्गों को छेद रही हो। यह सब ब्यूक के सिद्धांत का प्रमाण है कि ब्रह्म-चैतन्य मनुष्य की एक प्राकृतिक क्षमता है। यह प्रमाण देता है कि मस्तिष्क की वे कोशिकायें जो इस क्षमता से संबंध रखती हैं, मनुष्य में विद्यमान हैं-भले ही इस समय वे अधिकांश मनुष्यों में निष्क्रिय या कार्यहीन हैं।

उसने अपने मेरुदण्ड में एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का अनुभव किया। कई हफ्तों से पूरा मेरुदण्ड जैसे लोहे में बदल गया था। इस कारण जब वह ईश्वर पर ध्यान करने बैठता, उसे ऐसा लगता जैसे कि वह हमेशा से ही इसमें स्थित है और वह हिले बिना, एक स्थान पर अनन्त काल तक बैठे रह सकता है। कभी-कभी अलौकिक शक्ति की एक बाढ़ उसके भीतर प्रवेश करती और उसे अनुभव होता कि वह अपने कंधों पर पूरा ब्रह्माण्ड उठाये है। उसने अनुभव किया कि जीवन का अमृत, अमरता का अक्षय-रस, उसकी रगों में एक वास्तविक, यथार्थ शक्ति के रूप में बह रहा है। यह उसे पारा या बिजली रूपी एक तरल प्रकाश के रूप में, उसके पूरे शरीर में फैला हुआ लग रहा था।
उच्च चेतना के इन हफ़्तों के दौरान उसे भोजन या नींद की कोई आवश्यकता महसूस नहीं हुई। परन्तु उसने अपना बाह्य जीवन अपने घर के लोगों के अनुसार ही रखा। जब उसके परिवार के लोग खाते या सोते तो वह भी ऐसा करता। सभी खाद्य पदार्थ उसे विशुद्ध ब्रह्म प्रतीत होते और निद्रा में वह ईश्वर के ‘अनन्त हाथों’ में सिर रख कर सोता था और शब्दों से परे, वर्णनातीत, एक परम आनंद की अवस्था में जागता था।
इससे पहले वह जीर्ण जुकाम से पीड़ित रहता था; अब उसका शरीर सभी रोगों से मुक्त होकर शुद्ध हो गया था। उसके परिवारजन और मित्र उसके रूप और व्यवहार में आये इस महान् परिवर्तन को देख रहे थे। उसका चेहरा एक उज्जवल प्रकाश से चमकता था, उसके नेत्र आनंद के निर्झर थे। एक विचित्र सहानुभूति से बाध्य होकर उस तक खिंच कर अजनबी उससे बात करते; ट्राम पर बच्चे आकर उसकी गोद में बैठते, उसे अपने घर बुलाते।
अन्य वाईएसएस/एसआरएफ़ क्रियावानों के अनुभव
मैंने 45 वर्षा से क्रिया योग का अभ्यास किया है । 20 साल से अधिक समय तक मेरा आत्मध्यान बड़ा नीरस था लेकिन फिर भी मैं रोज दो बार उसका अभ्यास करता रहा । अब जीवन के आखिरी वर्षों में मैं अपने को बहुत दिव्य अनुकंपा से अनुग्रहित महसूस करता हूं और उसको शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। अभी हाल ही में क्रिया योग के अभ्यास के बाद जब मैं गहरे आत्म ध्यान में था, मैंने गुरु जी से पूछा-” ब्रह्मांडीय शांति क्या है ? “पहले वहां मौन व्याप्त रहा। मैं अपने ध्यान में और गहरे उतर गया और धीरे-धीरे मैंने अनुभव किया — एक बहुत आनंदमय शांति मेरी मेरुदंड में नीचे के हिस्से से धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठती जा रही है और धीरे-धीरे मेरे पूरे शरीर में वह शांति व्याप्त हो गई। एक ऐसा शांति का अनुभव जो इससे पहले मुझे कभी नहीं हुआ था । शांति की उस विशाल तरंग में मुझे अनुभव हुआ कि मेरे इस शरीर के सभी परमाणु संपूर्ण सृष्टि के साथ स्पंदित हो रहे थे ब्रह्मांड की प्रत्येक धर्म की तरंग के साथ । इस आनंदमय शांति के आलोक में मुझे अनुभव हुआ कि मेरा शरीर जैसे पिघलता जा रहा है और मेरी आत्मा ऊपर की ओर उठ रही है और प्रेम की तरंगों के रूप में फैलती जा रही है। इससे भी अधिक गहरे आत्मध्यान में मेरी आत्मा और भी अधिक आनंदमय शांति की अवस्था में पहुंच गई ।एक ऐसी अवस्था में जहां कोई तरंगे नहीं थी। बहुत मधुरता थी परम शांति थी पूर्णता थी और मैं जान रहा था कि कुछ क्षणों के लिए जैसे मैं अपने घर में था। इस अनुभव में मुझे गुरुजी से पूछे गए अपने प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो गया था ब्रह्मांडीय शांति क्या होती है?
— एस बी., जॉर्जिया
उसके लिये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रेम के एक समुद्र में डूबा हुआ था; उसने बारम्बार स्वयं से कहा, ‘‘अन्तत: अब मैं जानता हूँ कि प्रेम क्या होता है! यह ईश्वर का प्रेम है, जो सबसे उदात्त मानव स्नेह को भी शर्मसार करता है। अनन्त प्रेम, अदम्य प्रेम, पूर्ण-संतुष्टिदायी प्रेम!’’ वह बिना किसी संदेह के यह जानता था कि प्रेम, ब्रह्माण्ड की सृष्टि व उसका संपोषण करता है, और सभी प्राणी, मानव या अमानवीय, इस प्रेम, इस अमर परमानंद-जो जीवन का सार है-की खोज के लिये बने हैं। उसने अपने मन को विस्तारित होते अनुभव किया, अपनी सहानुभूति को दूसरों को समावेश करते देखा-अंतहीन फैलते, ब्रह्माण्ड की हर वस्तु का स्पर्श करते, सारी वस्तुओं को, सब विचारों को उसकी चेतना से जोड़ते। वह ‘‘सब जगह केंद्रित था, पर उसकी परिधि कहीं भी नहीं थी।’’
प्रकृति का परमाणु-नृत्य
जिस हवा में वह साँस लेता था वह मित्रवत्, अंतरंग, और सजीव प्रतीत होती थी। उसने महसूस किया कि सारा विश्व उसका ‘घर’ था, कि वह किसी भी जगह, अजीब या अनजान अनुभव नहीं कर सकता था; कि पहाड़, समुद्र, दूरदराज़ के क्षेत्र जो उसने कभी देखे नहीं थे, उसके बचपन के घर जैसे ही उसके अपने थे। जहाँ भी उसने देखा, उसने प्रकृति का ‘‘परमाणु नृत्य’’ ही देखा; हवा भी प्रकाश के असंख्य चलित सूक्ष्मकणों से भरी थी।
इन हफ्तों के दौरान, वह हमेशा की तरह अपने दैनिक कर्त्तव्यों को करता रहा। परन्तु अब उसके पास एक अभूतपूर्व दक्षता और गति थी। टाइप किये कागज़ात उसकी मशीन से जैसे उड़कर निकलते। सामान्य समय के चौथे हिस्से में वे बिना त्रुटि के पूरे हो जाते। थकान शब्द उसके लिये अनजाना था। उसका कार्य उसे बच्चों के खेल की तरह लगता-प्रसन्नतादायक व चिंतारहित। अपने ग्राहकों के साथ प्रत्यक्षक या टेलीफ़ोन पर बातचीत के दौरान उसका आन्तरिक आनंद, हर कार्य एवं परिस्थिति को एक वैश्विक महत्त्व प्रदान करता था। क्योंकि उसके लिये ये व्यक्ति, यह टेलीफ़ोन, यह मेज़, यह आवाज़, सब कुछ ईश्वर ही थे जो अपने आकर्षक छद्मरूपों में उसके सामने प्रकट हो रहे थे।
अपने कार्य के बीच में, अचानक वह ईश्वर की कृपालुता से फिर से अभिभूत हो जाता था जिन्होंने उसे यह अविश्वसनीय, अवर्णनीय खुशी प्रदान की थी। ऐसे समयों में उसका श्वास पूरी तरह रुक जाता था। जो विस्मय वह अनुभव करता था, उसके साथ एक पूर्ण आंतरिक एवं बाह्य शांति रहती थी। उसकी चेतना के नीचे सदा ही एक अगाध व अवर्णनीय कृतज्ञता की भावना रहती थी; दूसरों को यह बताने की लालसा रहती थी कि उन लोगों के भीतर क्या आनंद छिपा है; पर इन सबसे ज़्यादा, उसे यह दिव्य ज्ञान था, जो मानव समझ से परे था, कि दुनिया के साथ सब कुछ ठीक था-कि सारी सृष्टि ब्रह्म-चैतन्य, अमर आनंद के लक्ष्य की ओर जा रही है। यह प्रबुद्ध अवस्था उसके साथ दो महीने तक रही, और फिर धीरे-धीरे क्षीण होती चली गयी। यह पहले की भांति सशक्त रूप से कभी वापस नहीं आयी, हालाँकि कुछ लक्षण, विशेषकर दिव्य शांति एवं आनंद की अनुभूति उसे दोबारा अनुभव होते हैं, जब भी वह योगदा सत्संग ध्यान प्रविधियों का अभ्यास करता है।
‘‘योग का अभ्यास परमेश्वर के अनुग्रह को उच्चतम तरीके से लाता है’’

श्री ज्ञानमाता परमहंस योगानन्दजी के सबसे उन्नत क्रियायोगी शिष्यों में से थीं। भक्तों को प्रेमपूर्वक दिया गया उनका विवेकपूर्ण मार्गदर्शन उनकी पुस्तक, God Alone: The Life and Letters of a Saint में संकलित है। 1951 में उनके परलोकगमन के बाद, गुरुदेव ने अपने शिष्यों से कहा की ज्ञानमाता ने पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर ली थी। परमहंसजी ने कहा था :
अपने परलोकगमन से दो दिन पहले ज्ञानमाता ने मुझे निर्विकल्प समाधि प्रदान करने के लिये कहा। परन्तु मैंने कहा, ‘‘तुम्हें उसकी ज़रूरत नहीं। मैंने तुम्हें ईश्वर में स्थित देखा है। महल में पहुँच कर तुम फिर बगीचे में क्यों जाना चाहती हो?’’…
उन्होंने पिछले जन्म और इस जन्म में अपने कर्म को पूर्ण रूप से भोग लिया था और परमपिता-परमात्मा के आशीर्वाद से उन्होंने इस जन्म में निर्विकल्प समाधि की अवस्था के बिना ही शाश्वत मुक्ति प्राप्त कर ली। इसका अर्थ यह नहीं है कि ज्ञानमाता को निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति नहीं हुई। उन्होंने यह अपने पिछले जन्म में प्राप्त कर लिया था। परन्तु जैसा कि उनके कमरे में टँगे छोटे कॉर्ड पर लिखा है: ‘‘केवल ईश्वर’’-इस जीवन में मात्र ईश्वर के अनुग्रह ने उनकी पीड़ा से अविचलित, विजयी आत्मा को सर्वव्यापक मुक्ति में विलीन कर लिया था।…
सभी भक्तों को याद रखना चाहिए कि केवल योग का निरंतर अभ्यास ही उच्चतम तरीके से ईश्वर की कृपा लाता है। जैसे कृष्ण ने अर्जुन से कहा है : ‘‘हे अर्जुन, ज्ञान के पथ, या कर्म के पथ या किसी अन्य पथ से श्रेष्ठ, योग का मार्ग है। इसलिये, हे अर्जुन, तू योगी बन!’’